मूर्तिकला और चित्रकला के माध्यम से हो रहा धर्मजागरण, दूर-दूर तक प्रसिद्ध है काछी पिपरिया का पुतरियो का मेला
मुकेश अग्निहौत्री रहली। छोटे से गांव काछी पिपरिया में करीब दो सौ साल पुरानी परम्परा आज भी कायम है। भाद्रपद की पुर्णिमा को प्रतिबर्ष गांव में मेला लगता है इस मेले की पुतरियो के मेले के रूप में ख्याति है। प्राचीनकाल में पाण्डेय परिवार द्वारा प्रारम्भ की गई मूर्तियो की झांकी की परम्परा चौथी पीडी तक बरकरार है।
मेले का इतिहास
प्राचीन काल में ग्रामीणों में शिक्षा की कमी एवं संसाधनों के आभाव में धर्मजागरण मूर्तिकला एवं चित्रकला के द्वारा झांकियों के माध्यम से किया जाता रहा। करीब 200 साल पहले स्व. दुर्गाप्रसाद पाण्डेय द्वारा काछी पिपरिया गांव में पुतरियो के मेले की शुरुवात की गई थी। स्व. पाण्डेय मूर्तिकला एवं चित्रकला में पारंगत थे उन्होंने लगभग एक हजार मूर्तियो का निर्माण कर अपने निवास को एक संग्रहालय के रूप में विकसित कर धार्मिक कथाओं के अनुसार कृष्ण लीलाओ की सजीव झांकियां सजाकर धर्मजागरण का कार्य प्रारम्भ किया था। जो वाद में पुतरियो के मेले के रूप में जाना जाने लगा। स्व. दुर्गाप्रसाद पाण्डेय के वाद उनके पुत्र स्व. बैजनाथ प्रसाद पाण्डेय ने इस मेले को आगे बढ़ाया तीसरी पीडी के जगदीश प्रसाद पाण्डेय ने अपने पूर्वजों की परम्परा को संजोकर रखते हुए आज तक बरकरार रहा है। चौथी पीडी भी पूरी सिद्दत के साथ इस कार्य सहभगिता करती आ रही है।
पाण्डेय परिवार के द्वारा लगातार चार पीढिय़ों से झांकियो के द्वारा धर्मजागरण के साथ व्यसनमुक्ति, गौ पालन का सन्देश देने का पुण्य कार्य अपने स्वयं के व्यय एवं परिश्रम के द्वारा दिया जा रहा है इस कार्य के लिए पाण्डेय परिवार के द्वारा न तो शासन से कोई सहायता की मांग की गई न ही संस्कृति विभाग द्वारा इस अनूठे आयोजन की सुध ली गई। आधुनिकता के दौर में इस मेले के प्रति लोग का आकर्षण लगातार कम हो रहा है परंतु पाण्डेय परिवार इस परम्परा को सतत आने वाली पीढिय़ों तक जारी रखने का मनसूबा रखता है।